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जीवन पाने को लोग यीशु के पास क्यों नहीं आना चाहते?


यूहन्ना 5:40 में प्रभु यीशु मसीह ने कहा:
“तो भी तुम जीवन पाने के लिये मेरे पास आना नहीं चाहते।”

यह वाक्य एक दुखद सच्चाई को उजागर करता है। आज जब जीवन की चाहत, शांति की तलाश और आत्मिक तृप्ति की आवश्यकता चारों ओर स्पष्ट दिखाई देती है, तब भी लोग उस जीवन के स्रोत — प्रभु यीशु मसीह — के पास आने से कतराते हैं। क्यों?

जीवन पाने के लिए लोग यीशु के पास क्यों नहीं आना चाहते?

जब बाइबल कहती है कि "परमेश्वर ने हमें अनन्त जीवन दिया है, और यह जीवन उसके पुत्र में है" (1 यूहन्ना 5:11), तब लोग उस जीवन को क्यों नहीं अपनाते? इस लेख में हम उन सात मुख्य कारणों पर विचार करेंगे जिनके कारण आज भी बहुत से लोग जीवन पाने के लिए यीशु के पास नहीं आते।

1. सोचते हैं कि हमें जीवन की आवश्यकता नहीं है

बहुत से लोग यह सोचते हैं कि वे पहले से ही ‘जीवन’ जी रहे हैं — नौकरी है, परिवार है, संपत्ति है, कुछ हद तक सुख-सुविधा भी है। उनके लिए जीवन का अर्थ केवल सांस लेना, खाना-पीना, कमाना और परिवार पालना है। आत्मिक जीवन उनके विचार में नहीं आता।


लेकिन बाइबल हमें सिखाती है कि सच्चा जीवन केवल सांस लेने का नाम नहीं, बल्कि परमेश्वर के साथ जीवित संबंध में जीना है।
“मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीवित रहेगा, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है।” (मत्ती 4:4)

आज के यांत्रिक जीवन में, आत्मा की भूख अनदेखी रह जाती है। जब तक व्यक्ति यह नहीं समझता कि उसे आत्मिक जीवन की आवश्यकता है — तब तक वह यीशु की ओर नहीं देखता।

2. सोचते हैं कि हम खुद ही जीवन प्राप्त कर सकते हैं

बहुत से लोग सोचते हैं कि अगर वे अच्छे काम करते हैं, दान-पुण्य करते हैं, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा जाते हैं, तो वही उनके मोक्ष का रास्ता है। उनके अनुसार, यदि वे "अच्छे इंसान" हैं, तो उन्हें किसी मसीहा या उद्धारकर्ता की जरूरत नहीं।


परंतु बाइबल सिखाती है कि मनुष्य अपने प्रयासों से परमेश्वर तक नहीं पहुंच सकता।
“सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।” (रोमियों 3:23)
“अपने कामों से नहीं... परन्तु अपनी दया के अनुसार उसने हमारा उद्धार किया।” (तीतुस 3:5)

आत्मनिर्भरता की भावना अक्सर मनुष्य को परमेश्वर की ओर झुकने नहीं देती। वह समझता है कि वह खुद ही सब कुछ कर सकता है। लेकिन आत्मिक दृष्टि से हम सब निर्बल हैं — और यीशु ही हमारी आशा हैं।

3. अपने लिए अन्य विकल्प चुन लेना

कुछ लोग यीशु के स्थान पर अन्य गुरुओं, देवी-देवताओं, विचारधाराओं या सांसारिक वस्तुओं को अपना सहारा बना लेते हैं। कोई धन में, कोई रिश्तों में, कोई कर्मकांडों में, तो कोई दर्शन-शास्त्रों में जीवन ढूँढता है।


बाइबल इसे मूर्ति-पूजा कहती है — जब हम परमेश्वर की जगह किसी और को बैठा देते हैं।

“तू मेरे सिवाय किसी और को ईश्वर करके न मानना।” (निर्गमन 20:3)


यूहन्ना 3:19 में लिखा है:
“ज्योति जगत में आई, परन्तु मनुष्यों ने अंधकार को ज्योति से अधिक प्रिय जाना।”

लोग अक्सर वह चुनते हैं जो उनके मन को अच्छा लगता है, न कि वह जो आत्मा को जीवन देता है।

4. यीशु के विषय में गलत जानकारी

कई लोग यीशु को केवल एक अच्छा मनुष्य, एक शिक्षक, या किसी विशेष धर्म का संस्थापक समझते हैं। कुछ लोग यह सोचते हैं कि यीशु "विदेशी भगवान" हैं — केवल ईसाइयों के लिए।
कुछ को लगता है कि यीशु का सुसमाचार पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है और भारत जैसे देशों से इसका कोई वास्ता नहीं।

लेकिन बाइबल में स्पष्ट है कि:
“यीशु ही वह पत्थर है जिसे तुम राजमिस्त्रियों ने तुच्छ जाना, जो कोने का सिरा बन गया है। और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं, क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों को कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया है, जिसके द्वारा हम उद्धार पा सकें।” (प्रेरितों के काम 4:11-12)


यीशु का सुसमाचार कोई विदेशी बात नहीं है — यह संपूर्ण मानवजाति के लिए है। परन्तु जब तक लोग सही जानकारी नहीं पाते, वे भ्रम में रहते हैं।

5. पारिवारिक और सामाजिक बाधाएं

बहुत से लोग यीशु में विश्वास करना चाहते हैं, परन्तु उनका परिवार, समाज या संस्कृति उन्हें ऐसा करने से रोकती है।
भारत जैसे समाज में जहाँ धार्मिक परंपराएं और सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं, वहाँ यीशु की ओर झुकना कई बार विरोध और तिरस्कार को आमंत्रित करता है।

यीशु ने स्वयं कहा:
“जो कोई अपने पिता या माता को मुझ से अधिक प्रिय समझता है, वह मेरे योग्य नहीं।” (मत्ती 10:37)

यीशु यह नहीं कहते कि हमें अपने परिवार से प्रेम न करें — बल्कि यह कि जब जीवन और उद्धार का प्रश्न हो, तब हमें साहसपूर्वक उन्हें चुनना चाहिए जो सच्चा है।

6. जीवन में पाप – एक अदृश्य रुकावट

पाप सिर्फ गलत काम नहीं, बल्कि परमेश्वर से दूरी का कारण है। जब मनुष्य जानता है कि उसका जीवन गंदगी और दोषों से भरा है, तो उसे यीशु के पास आने में शर्म और भय लगता है। वह डरता है कि अगर यीशु के पास गया, तो उसे अपने जीवन को बदलना पड़ेगा।

बाइबल कहती है:
“तुम्हारे अधर्मों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है।” (यशायाह 59:2)

फिर भी, यीशु का निमंत्रण यही है:
“हे सब परिश्रमी और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।” (मत्ती 11:28)

यीशु पापियों के पास आए, न कि धर्मियों के पास। उनका प्रेम क्षमा देने वाला है। परन्तु जब तक पाप स्वीकार नहीं किया जाता, उद्धार को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

7. किसी ने यीशु के विषय में बताया ही नहीं

शायद यह सबसे बड़ा और दुखद कारण है। बहुत से लोग इसलिए यीशु के पास नहीं आते, क्योंकि उन्होंने उसके विषय में कभी सुना ही नहीं।
भारत के करोड़ों गाँवों और कस्बों में आज भी लोग सच्चे सुसमाचार से अनभिज्ञ हैं।

बाइबल पूछती है:
“और वे उस पर विश्वास क्योंकर करें, जिसे उन्होंने सुना नहीं? और बिना प्रचारक के वे क्योंकर सुनें?” (रोमियों 10:14)

यीशु ने कहा:
“जाओ और सब जातियों को चेला बनाओ।” (मत्ती 28:19)

अगर हम मसीही जन अपने आस-पास के लोगों को यीशु के बारे में नहीं बताएंगे, तो वे जीवन के स्रोत से अनभिज्ञ ही रह जाएंगे।

निष्कर्ष:

यीशु मसीह ही जीवन का स्रोत हैं। वे न केवल पापों की क्षमा देते हैं, बल्कि हमें आत्मिक शांति, उद्देश्य और अनन्त जीवन प्रदान करते हैं। फिर भी, लोग उनके पास नहीं आते — कभी भ्रम के कारण, कभी भय के कारण, कभी सामाजिक दबाव के कारण, और कभी अपनी आत्मिक आवश्यकता को न समझने के कारण।


परन्तु आज भी यीशु का निमंत्रण वैसा ही है:
"जो प्यासा है, वह मेरे पास आकर पी ले।” (यूहन्ना 7:37)

अब प्रश्न यह है — क्या हम यीशु के पास आएंगे? और क्या हम दूसरों को उनके पास लाने का प्रयास करेंगे?

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